ऊबड़-खाबड़ पानी की पगडंडियों पे
सरपट दौड़ना, कोई खेल नहीं।
अपने सर-जमीं की सीमा लाँघ,
धरती की कोख से
जीवन देना, कोई खेल नहीं।
अलग से लोग, अलग सी भाषा
अलग सी सोच, अलग सी आशा
अलग सी नौकरशाही, अलग सी परिभाषा
सबकी अपनी भूख, सबकी अपनी अभिलाषा।
अनजाने से देश में,
क़दम-क़दम किसी वेश में,
हर किसी की आकांक्षाओं पे,
खरा उतरना, कोई खेल नहीं।
अपने हर कमीं की सीमा लाँघ,
धरती की कोख से
जीवन देना, कोई खेल नहीं।
हर रोज़ बारिशों की छीट-पुट,
घने जंगलों की झुरमुट,
जल-जल में जहाँ हो मगर का भय,
सर्प-बिच्छु का हर पल हीं हो संशय।
ऐसे सुहाने परिवेश में,
हर सुबह नए जोश में,
इन काले पत्थरों के
दीये सजाना, कोई खेल नहीं
अपने हर पर्व और उत्सव को भूलकर,
अपनों से कोशों दूर
लोगों की ख़ुशियाँ सजाना, कोई खेल नहीं।
समुद्री हवाओं की सन-सन,
उफनते लहरों का बचपन
काली अंधेरी रातों में भी
अक्सर झुले झुलाती है,
पर जल की रानी अटल-अडिग
बस खड़ी-खड़ी मुस्काती है।
समंदर से घिरा समुन्दर के बीच
यह एक समुंद्र-मंथन हीं है।
अमृत का पाना तय है,
पर विष आना भी निश्चय है।
अमृत की चाह में,
धन-लक्ष्मी की आश में,
हलाहल पीना, कोई खेल नहीं।
अपने सर-जमीं की सीमा लाँघ,
धरती की कोख से
जीवन देना, कोई खेल नहीं।
सरपट दौड़ना, कोई खेल नहीं।
अपने सर-जमीं की सीमा लाँघ,
धरती की कोख से
जीवन देना, कोई खेल नहीं।
अलग से लोग, अलग सी भाषा
अलग सी सोच, अलग सी आशा
अलग सी नौकरशाही, अलग सी परिभाषा
सबकी अपनी भूख, सबकी अपनी अभिलाषा।
अनजाने से देश में,
क़दम-क़दम किसी वेश में,
हर किसी की आकांक्षाओं पे,
खरा उतरना, कोई खेल नहीं।
अपने हर कमीं की सीमा लाँघ,
धरती की कोख से
जीवन देना, कोई खेल नहीं।
हर रोज़ बारिशों की छीट-पुट,
घने जंगलों की झुरमुट,
जल-जल में जहाँ हो मगर का भय,
सर्प-बिच्छु का हर पल हीं हो संशय।
ऐसे सुहाने परिवेश में,
हर सुबह नए जोश में,
इन काले पत्थरों के
दीये सजाना, कोई खेल नहीं
अपने हर पर्व और उत्सव को भूलकर,
अपनों से कोशों दूर
लोगों की ख़ुशियाँ सजाना, कोई खेल नहीं।
समुद्री हवाओं की सन-सन,
उफनते लहरों का बचपन
काली अंधेरी रातों में भी
अक्सर झुले झुलाती है,
पर जल की रानी अटल-अडिग
बस खड़ी-खड़ी मुस्काती है।
समंदर से घिरा समुन्दर के बीच
यह एक समुंद्र-मंथन हीं है।
अमृत का पाना तय है,
पर विष आना भी निश्चय है।
अमृत की चाह में,
धन-लक्ष्मी की आश में,
हलाहल पीना, कोई खेल नहीं।
अपने सर-जमीं की सीमा लाँघ,
धरती की कोख से
जीवन देना, कोई खेल नहीं।
No comments:
Post a Comment