Wednesday, September 12, 2018

अंतरद्वंद्व

तुझे पाने की खुशी
या पाकर खो देने का डर
ये कैसा अंतरद्वंद्व है।

अनगीनत बातें है करने को तुझसे
पर  कैसे समझाऊं
कि मेरा मतलब सिर्फ बातें करने भर से है,
बातों के मतलब से मेरा कोई मतलब नहीं।

बातें करने की खुशी,
या उन बातों के मतलब का डर
ये कैसा अंतरद्वंद्व है।

तुम्हे सूनने में एक सुकून है
पर कैसे बताऊं,
तुम अच्छे से बात करती हो तो डर जाता हूँ,
सोचता हूँ, मैं फिर से तुझे नाराज न कर दूँ।

तुम्हें सूनने की खुशी,
या तेरी नाराजगी का डर,
ये कैसा अंतरद्वंद्व है।

जी चाहता है तेरे ख्वाब सजा दूँ
या फिर तुझे हीं अपने ख्वाबो का हिस्सा बना लूँ
पर इस सच को कैसे छिपाऊं,
कि अपने ख्वाबो का शाय कोई मेल नहीं है।

ख्वाबो का घर ,
या बेमेल ख्वाबो का डर
ये कैसा अंतरद्वंद्व है।

हर पल तुमसे मिलने की हसरत सी होती है
पर कैसे कहूँ
कि तेरे साथ होने पर, खुद से नफरत सी होती है
सोचता हूँ, काश मैं तेरी उम्मीदों सा होता।

तुझे पाकर खुद को खो दूँ
या खुद को खोकर तुझे पा लुं
ये कैसा अंतरद्वंद्व है।

No comments:

Post a Comment