Wednesday, October 30, 2019

"दीवाली" - A Festival of Darkness

मैं अंधेरा, अहोभाग्य मेरे,
जो मेरे स्वागत में, आज
अनगिनत दीये जलेंगे।

लोग कहते हैं, ये साजिश है
मुझे मिटाने की,
पर, मैं नहीं मानता,
इनकी शैतानियात को, मुझसे अच्छा
भला कौन है पहचानता।

इन्हें उजालों की ख्वाइश
तो कतई नहीं, वरना
सूरज ढ़लने का ऐसा इंतज़ार न होता।
न होती आज आमावश्या की रात,
जहां ऊजालों का कोई संसार न होता।

मैंने आजीवन
सबका भला हीं किया है,
थक कर जब सब शाम को आते,
चैन की नींद या प्यार का दामन
सबकुछ उन्हें मैंने हीं दिया है।
फिर भला मुझे क्यों मिटायें,
ऐसी साजिश क्यों रचायें।

धूप जलेंगे, दीये जलेंगे
इतराउंगा मैं , इठलाउंगा मैं
ऊजालों की फ़ितरत पर
जलते दीये की कसरत पर।

फुलझड़ियां होंगी, पटाख़ों की लड़ियां होंगीं,
बरसूंगा मैं, गरजूँगा मैं
आसमान की बुलंदियों पर
धरती की पगडंडियों पर।

कोटि-कोटि धन्यवाद
जो मुझे पुरस्कृत करेंगे,
मैं अंधेरा, अहोभाग्य मेरे।
जो मेरे स्वागत में, आज
अनगिनत दीये जलेंगे।

समुंद्र-मंथन: Bunyu Mine

ऊबड़-खाबड़ पानी की पगडंडियों पे
सरपट दौड़ना, कोई खेल नहीं।
अपने सर-जमीं की सीमा लाँघ,
धरती की कोख से
जीवन देना, कोई खेल नहीं।

अलग से लोग, अलग सी भाषा
अलग सी सोच, अलग सी आशा
अलग सी नौकरशाही, अलग सी परिभाषा
सबकी अपनी भूख, सबकी अपनी अभिलाषा।

अनजाने से देश में,
क़दम-क़दम किसी वेश में,
हर किसी की आकांक्षाओं पे,
खरा उतरना, कोई खेल नहीं।
अपने हर कमीं की सीमा लाँघ,
धरती की कोख से
जीवन देना, कोई खेल नहीं।

हर रोज़ बारिशों की छीट-पुट,
घने जंगलों की झुरमुट,
जल-जल में जहाँ हो मगर का भय,
सर्प-बिच्छु का हर पल हीं हो संशय।

ऐसे सुहाने परिवेश में,
हर सुबह नए जोश में,
इन काले पत्थरों के
दीये सजाना, कोई खेल नहीं
अपने हर पर्व और उत्सव को भूलकर,
अपनों से कोशों दूर
लोगों की ख़ुशियाँ सजाना, कोई खेल नहीं।

समुद्री हवाओं की सन-सन,
उफनते लहरों का बचपन
काली अंधेरी रातों में भी
अक्सर झुले झुलाती है,
पर जल की रानी अटल-अडिग
बस खड़ी-खड़ी मुस्काती है।

समंदर से घिरा समुन्दर के बीच
यह एक समुंद्र-मंथन हीं है।
अमृत का पाना तय है,
पर विष आना भी निश्चय है।
अमृत की चाह में,
धन-लक्ष्मी की आश में,
हलाहल पीना, कोई खेल नहीं।
अपने सर-जमीं की सीमा लाँघ,
धरती की कोख से
जीवन देना, कोई खेल नहीं।