ये
दुखों की दुनिया भी
बड़ी अजीब है
इतनी
कोशिश उसे पाने की,
जो
सहज हीं सबके नसीब है!
आँधी-तूफान सूखा-बाढ़,
भूकंप सूनामी
बीमारी-महामारी
इतना
क्या कम है, पल-पल दुखी कर
देने को!
फिर
क्यूँ हर कोई आतुर
है, दुख समेट लेने को.
रोज
सुबह उठकर दुख की तलाश करता.
कभी
भूत को टटोलता तो
कभी भविष्य को,
कभी
खुद को तौलता तो
कभी मित्र को.
कल
का तिरस्कार और कल बदले
की ख्वाइश,
अपनो
का व्यवहार और दूसरों की
नुमाइश.
सफलता
की ईर्ष्या और बिफलता का
भय,
प्यार
की चाहत या फिर रिस्तो
का संशय.
अनगिनत बहाने
हैं दुखी हो जाने को
पर एक वजह
तक नहीं है मुस्कुराने को.
शायद दुख
हीं जीने का आधार हो,
खुशी मृग
मरीचिका की भाँति निराकार हो.
या फिर खुशी
दुखों से ज्न्मा एक बीज मात्र हो
जो उग आए
भी तो, कई नये दुखों का पात्र हो.
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