Wednesday, September 12, 2018

अंतरद्वंद्व

तुझे पाने की खुशी
या पाकर खो देने का डर
ये कैसा अंतरद्वंद्व है।

अनगीनत बातें है करने को तुझसे
पर  कैसे समझाऊं
कि मेरा मतलब सिर्फ बातें करने भर से है,
बातों के मतलब से मेरा कोई मतलब नहीं।

बातें करने की खुशी,
या उन बातों के मतलब का डर
ये कैसा अंतरद्वंद्व है।

तुम्हे सूनने में एक सुकून है
पर कैसे बताऊं,
तुम अच्छे से बात करती हो तो डर जाता हूँ,
सोचता हूँ, मैं फिर से तुझे नाराज न कर दूँ।

तुम्हें सूनने की खुशी,
या तेरी नाराजगी का डर,
ये कैसा अंतरद्वंद्व है।

जी चाहता है तेरे ख्वाब सजा दूँ
या फिर तुझे हीं अपने ख्वाबो का हिस्सा बना लूँ
पर इस सच को कैसे छिपाऊं,
कि अपने ख्वाबो का शाय कोई मेल नहीं है।

ख्वाबो का घर ,
या बेमेल ख्वाबो का डर
ये कैसा अंतरद्वंद्व है।

हर पल तुमसे मिलने की हसरत सी होती है
पर कैसे कहूँ
कि तेरे साथ होने पर, खुद से नफरत सी होती है
सोचता हूँ, काश मैं तेरी उम्मीदों सा होता।

तुझे पाकर खुद को खो दूँ
या खुद को खोकर तुझे पा लुं
ये कैसा अंतरद्वंद्व है।

Friday, September 7, 2018

बंद आखों का सच


तुमसे मिलकर जाना 
कितना गलत था मेरा मुस्कुराना

क्यूँ दिखाते हो ये झुठी हंसी
क्या तुझे कोई दर्द नहीं।

या तो तुम बेवकूफ हो
या फिर नादान हो
तभी दुनिया के दाव-पेंच और,
झुठ-फेरब से अनजान हो।

जहां तक मेरी नजर जाती है
सिर्फ धोखाघड़ी हीं नजर आती है।

भाई-बहन पिता- पुत्र
पति-पत्नी दुशमन- मित्र
व्यापारी-ग्राहक नेता-जनता 
अकबर-बिरबल संता-बंता

सबकी एक हीं सोच है
बातें चिकनी-चुपडी पर
नियत में खोट है।

आँखे खोलो, सच को जानो
समय रहते इस दर्द को पहचानो।
वरना खडे-खडे हीं लूट जाओगे
फिर बैठे पछताओगे।

इतना सूनकर मैं डर सा गया
दिल पे छाया एक मंजर सा नया
शक के बादल उमडने लगे
कभी अपनों पर 
तो कभी गैरों पर बरसने लगे।

मैं थोडा घबराया,
पर खुद को फिर द्रीढ़ निश्चय कर
मन हीं मन गुर्राया।
सबक सिखा दूँगा मैं सबको
गलत बरदाश्त नहीं अब मुझको
पहले तो समझाउंगा
फिर भी नहीं सुधरा
तो लतियाउंगा।
माफ करना! थाने ले जाउंगा
नहीं! थाने जाकर भी क्या होगा,
वो भी तो इसी थाली के चट्टे-बट्टे हैं
उनसे तो नक्सल हीं अच्छे हैं।
बेहत्तर है मैं नक्सली बन जाऊं
खून का बदला खून और
अपमान का बदला अपमान से पाऊं।

अभी एक सोच भर आई थी,
कि आखों में लाली छाई थी
होठो पे अब मुस्कान न था
डर की ऐसी परछाई थी।

कल तक जो थी नजरंदाज
वो बातें जैसे चुभती थी आज
हर कदम बुराई दिखती थी,
हर पल उखड़ते मेरे मिज़ाज

घर से निकलता तो रूप बदलकर
लोगों से मिलता, पर संभलकर।
क्यूँकि लुटेरों की दुनियां में 
मैं भी अब, एक लूटेरा था
यहां न कोई तेरा, न कोई मेरा था।

सबकी अपनी खुशियां थी
सबके अपने गम थे।
पर खुशियों में मुस्कान न थी,
न हीं गम में आँखे नम थे।

ये कैसा दर्द था
मानो दिल पत्थर था,
डरता रहा जिस डर से
वो आज मेरे अंदर था।

खुली थी आँखे और 
अब मैं नादान न था,
पर दिल के दरवाजे बंद थे
जीना कुछ आसान न था।

तुमसे मिलकर अब है जाना  
खुली आखों से जहां दीखता है 
अपनों का गम अपनों का फ़साना
बंद पलकों में जीता है वहीं,
दुसरों का सच, दुसरों का तराना।
तुमसे मिलकर अब है जाना 
गलत नहीं था मेरा मुस्कुराना।